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छोटे पशुओं के उपचार के लिए औषधीय पौधों द्वारा पशु चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन - सेवा तामिलनाडु द्वारा एक शोध अध्ययन।

by ruchita last modified Jul 07, 2014 10:57 AM

Oct 01, 2012

छोटे पशुओं के उपचार के लिए औषधीय पौधों द्वारा पशु चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन - सेवा तामिलनाडु द्वारा एक शोध अध्ययन।

From top left: Mecheri sheep grazing at Korangadu pasture, Local healers preparing and administering masala bolus, Masala bolus prepared using a variety of medicinal plants

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सेवा (सस्टेनेबल एग्रीकल्चर एण्ड इन्वायरणमेन्टल वौलन्टरी एक्शन) एक गैर-सरकारी संस्था है जो स्थानीय ज्ञान व ज़मीनी स्तर पर हुई नई रचनाओं व प्रयोगों का दस्तावेजीकरण व प्रसार तथा स्थानीय पशुओं की नसलों का संरक्षण करने मे कार्यरत है। पिछले बीस वर्षों से सेवा औष्धीय पौधों पर आधारित पशु चिकित्सा पद्धति का पशुपालन के लिए दस्तावेजीकरण कर रही है और उन्होने 4,000 से अधिक किसानो को प्रशिक्षित कर दिया है जिनमे से कुछ तामिलनाडु के विभिन्न भागों मे पशुओं के रोगशमन करने वालों के रुप मे अभ्यास कर रहें है। सन् 2008 मे सेवा ने कुछ भेड़ों पर पेट के कृमी-नाश के लिए जड़ी-बूटी निर्मित दवाई व रसायनिक दवाई के तुल्नात्मक प्रभाव को देखने के लिए एक अध्य़य़न की शुरुआत की। इस शोध अध्य़य़न का हिस्सा बनने के लिए सेवा ने कुछ चरवाहों का चयन किया जो थिरुपूर और थुटुकुड्डी ज़िलों के क्रमशः नल्लमपलायम और वैम्बुर गाँव-समूह (क्लस्टर) से थे। नल्लमपलायम और वैम्बुर गाँव-समूह क्रमशः मेचेरी ओर वैम्बुर भेड़ों की नसलों का निवास स्थान है। क्षेत्र के किसान मामूली खेतीय़ोग्य भूमि रखते है और 30-40 भेड़ों के झुंडों का प्रायः रख-रखाव करते है। कई परिवारों के लिए भेड़-पालन आजीविका का एक मात्र स्रोत है। क्षेत्र मे चरवाहों की औसत वार्षिक आय 20 भेड़ों के झुंड से 30,000 रुपये है।

दोनो गाँव-समूह में भेड़ एक खुली-चराई प्रणाली के तहत पाली जातीं हैं, लेकिन अधिकांश किसान नल्लमपलायम गाँव-समूह मे अपनी भेड़ चराई के लिए कोरनगडु1 चारागाह बनाये रखते है। इस क्षेत्र में चरवाहों की पशु-चिकित्सा स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सीमित है। सेवा द्वारा एकत्र किये गए आँकड़ों के मुताबिक व्यस्क भेड़ की ओसत वार्षिक मृत्यु-दर 15 प्रतिशत से अधिक है। प्रमुख रोग जैसे खुर और मुख की बिमारी (एफ.एम.डी.)2, ब्लू टंग3, और पी.पी.आर4 का फैलना इस मृत्यु-दर का कारण है।

सेवा द्वारा किया गया अध्ययन अप्रेल से सितम्बर 2008 तक की अवधि (गर्मियों से लेकर पूर्व मानसून के मौसम) तक फैला था जिसमे 2,385 भेड़ों को सम्मलित किया गया था जो थिरुपुर और थुटुकुडी ज़िलों के 8 गाँवों5 के 72 चरवाहों के थे। ये भेड़ या तो खुली चराई प्रणाली के तहत या निहित चारागाह भूमि (उदाहरणार्थ नल्लमपलायम मे कोरनगडु) पर पाली जाती थी।

तीन परीक्षण समुहों का गठन नीचे दिये गए विवरण के अनुसार किया गया -
टी 1 – नियंत्रण समुह (जिन्हें ना तो रसायनिक दवा और ना ही जड़ी-बूटी निर्मित दवाई पिलाई गई)
टी 2 – इस समुह को पारम्परिक रसायनिक दवा फेनबेंडाज़ोल पिलाई गई
टी 3 – इस समुह को जड़ी-बूटी निर्मित दवाई6 पिलाई गई साथ मे मसाला बोलस7 भी दिया गया


एक चिकित्सकीय निर्धारित कार्यक्रम और खुराक के अनुसार 10 एम.एल. फेनबेंडाज़ोल को टी 2 समुह के प्रत्येक भेड़ को तीन महीने मे एक बार पिलाई गई। इसके साथ टी 3 समुह मे जड़ी-बूटी निर्मित कृमि नाशक दवाई दो महीने मे एक बार (यानी के अध्ययन अवधि के दौरान तीन बार) व्यस्क भेड़ों को 30 एम.एल. तथा बच्चों को 10 एम.एल दिया गया। मसाला बोलस, एक प्रतिरक्षा बूस्टर के रूप में, टी 3 समूह के प्रत्येक भेड़ को हर दूसरे महीने भी दी गई। मसाला बोलस आकार में बड़े आँवले के बराबर होता है जिसका वजन करीबन 20 ग्राम होता है। मसाला बोलस को अध्ययन की अवधि के दौरान हर दूसरे महीने मे दिन में दो बार तीन दिनो तक दिया गया।

प्रत्येक समुह के मल के नमूने दोनो कृमि-नाषक दवाइयों देने के पहले, तीसरे, सातवे, दसवे और चौदहवे दिनों पर एकत्रित कर के, मद्रास पशु चिकित्सा कॉलेज, चेन्नई को ई.पी.जी. (अंडे प्रति ग्राम) की गिनती की सूक्ष्म आकंलन के लिये भेजा गया। इसी तरह के डेटा को छह महीने की अवधि में एकत्र किया गया। इस डेटा के अध्ययन से देखा गया कि इस छह महीनों के दौरान भेड़, दोनों टी 2 और टी 3 समूहों में, किसी भी संक्रामक रोगों के लक्षणों से मुक्त थे।

मद्रास पशु चिकित्सा कॉलेज के रिपोर्ट के अनुसार दोनो टी 2 और टी 3 समूहों मे ई.पी.जी. (अंडे प्रति ग्राम) की गिनती में अनुपचारित समूह (नियंत्रण समुह - टी1) कि तुलना मे कमी थी। फेनबेंडाज़ोल और जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाशक दवाई के उपचार से दोनो ही समूहों मे चौदहवें दिन पर मल अंडा गिनती के प्रतिशत में कमी क्रमशः 78.87 और 73.65 पायी गयी। इलाज के बाद चौदहवें दिन पर ई.पी.जी. में समग्र कमी प्रतिशत क्रमशः फेनबेंडाज़ोल और जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाशक दवाई के उपचार के समूहों मे 94.18 और 88.64 थी। इन परिणामों ने दर्शाया कि जड़ी-बूटी निर्मित दवाई की प्रभावशीलता उतनी ही कारगर व समकक्ष थी जितनी की रसायनिक दवा फेनबेंडाज़ोल की।

जड़ी-बूटी निर्मित दवाई के शुन्य दुषप्रभाव (ज़ीरो साईड इफैक्टस) को ध्यान में रखते हुए और इसकी दूरदराज़ के ग्रामीन क्षेत्रों मे आसानी से उपलब्धता के कारण इस औषधी को पशु चिकित्सा के रुप मे दोहराने व उपयोग मे लाने कि प्रबल योग्यता है। सेवा द्वारा उन किसानो से ली गई सामान्य प्रतिक्रिया, जिन्होने शोध परिक्षण मे हिस्सा लिया तथा उन किसानों से जिनकी भेड़ों को जड़ी-बूटी निर्मित दवाई व मसाला बोलस दिया गया, से पुष्टी हुई कि भेड़ पहले की तुलना मे ज्यादा सकिर्य व चुस्त थे। इसके अतिरिक्त किसानों ने भेड़ों के चरने के व्यवहार मे सकारात्मक परिवर्तन पाया जिसका कारण उनकी बढी हुई भूख थी।

हालांकि कुछ चरवाहो ने मसाला बोलस बनाने मे व इसको भेड़ों को खिलाने मे कठिनाई व्यक्त की। ज़मीनी स्तर पर हुए प्रयोग के सकारात्मक परिणामों के फलस्वरुप कुछ चरवाहों ने जड़ी-बूटी निर्मित दवाई व मसाला बोलस बनाना व उपयोग मे लाना चालू कर दिया है। गाँवो मे कुछ स्थानीय पशु चिकित्सक मसाला बोलस के कुछ सामग्री का उपयोग बीमार पशुओं का इलाज करने के लिये अपनी अलग दवाई बनाने मे इस्तमाल कर लेते है। औषधीय पौधे जिनका इस्तमाल जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाषक दवाई तैयार करने मे तथा मसाला बोलस बनाने मे होता है, प्रचूर मात्रा मे बंजर भूमि और क्रषि भूमि मे पाये जाते हैं। गैर-सरकारी संगठनो द्वारा चलाये गये कुछ क्रषि फार्मों जैसे पिचंदीकुलम वन भी इन औष्धीय पौधों का एक अच्छा स्रोत है। इसके अलावा चूंकि केवल पत्तियाँ और शाखाँए कृमि-नाषक दवाई व मसाला बोलस तैयार करने मे काम आते है, इन औष्धीय पौधों को जड़ से उखाड़ा नही जाता है।

सेवा तामिलनाडु विभिन्न गाँवो मे जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाशक दवाई व मसाला बोलस तैयार करने व उनको भेड़ को पिलाने व देने मे प्रशिक्षित करने के लिए चिकित्सा शिविर आयोजित करती रहती है। यह देखा गया है कि ग्रामीण आसानी से अपने मवेशियों को इन शिविर मे लाते हैं और औष्धीय दवाईयों को मवेशियों को पिलाने व देने मे मदद करते है। आम तौर पर दो तीन गांवों के बीच एक केंद्रीय स्थान शिविर के लिए चयन किया जाता है ताकि अधिकतम संख्या मे लोगों व पशुओं को लाभ मिल सके।

सेवा ने करुकमपलायम गाँव, ज़िला ईरोड के एक भूमिहीन मज़दुर, श्री चेलामुथ्थु8, की एक जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाशक दवाई निर्माण हेतु एक छोटा प्रोसेसिंग उपकरण स्थापित करने मे मदद की है। यह दवाई 809 रूपया प्रति लिटर बेची जाती है। जबकि कुछ पशुपालक प्रोसेसिंग युनिट से दवाई खरीदने खुद आते हैं, कुछ लोग टेलिफोन पर आर्डर बुक करवा देतें हैं और श्री चेलामुथ्थु दवाई की आवश्यक मात्रा उन्हे खुद पहुँचा देतें हैं।

जड़ी-बूटी निर्मित दवाई की लागत रसायनिक दवा फेनबेंडाज़ोल की लागत के मुकाबले बराबर व समकक्ष है (तालिका 1 देखें)। चूंकी औषधी की सामग्री घर के आसपास आसानी से मिल जाती है, पशुपालक जड़ी-बूटी निर्मित दवाई खुद भी तैयार कर सकते हैं, जबकि इसके विपरीत रसायनिक दवा कैमिस्ट से ही खरीदी जा सकती है।

सेवा द्वारा आयोजित व्यवहारिक शोध अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है कि यदि सहभागिता के आधार पर स्थानीय पद्धतियों कि जाँच के लिए वैज्ञानिक तकनीक अपनाई जाएँ तो गाँव के किसान आगे बढ़ कर इन्हे अपनाएगें।

यह अध्ययन दी गोट टर्सट के श्री संजीव कुमार द्वारा एस.ए.पी.पी.एल.पी.पी. के लिए किये गए दस्तावेज पर और श्री पी. विवेकानन्दन, कार्यकारी निदेशक सेवा, मदुरई और डा. एन कुमारवेलु, असोसिएट प्रोफेसर, तामिलनाडु पशु चिकित्सा और विज्ञान विश्वविद्यालय, चेन्नई, द्वारा प्रदान की गई सूचना पर आधारित है।

फोटो क्रेडिट - श्री संजीव कुमार, दी गोट टर्सट और श्री पी. विवेकानन्दन, सेवा

प्रस्तावित संदर्भ  - एस.ए.पी.पी.एल.पी.पी. (2012) – “छोटे पशुओं के उपचार के लिए औषधीय पौधों द्वारा पशु चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन - सेवा तामिलनाडु द्वारा एक शोध अध्ययन”

हिंदी अनुवाद – एन.के. शर्मा और शीला कोयाना (एस.ए.पी.पी.एल.पी.पी. को-औरडीनेशन टीम)

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1 कोरनगडु तामिलनाडु के अर्ध-शुष्क इलाके की निजी स्वामित्व वाली चारागाह है। इस चारागाह मे विभिन्न घास, पेड़ पोधो का सम्मिश्रण है जैसे धमन घास, कुलथ, वनमूंग और सफेद बबूल के पेड़ और चारो तरफ कोमीफोरा की मेड़ होती है।
खुर और मुख की बिमारी (एफ.एम.डी) दोनों बड़े और छोटे पशुओं को प्रभावित करने वाली एक अत्यंत संक्रामक वायरल रोग है। यह रोग पिकोरना वायरस, जीनस एफथोवायरस की प्रोटोटायपिक सदस्य द्वारा फैलती है। यह वायरस तापमान और पीएच की स्थिति पर निर्भर करती है, और एक महीने तक दूषित चारे और वातावरण में जीवित रह सकती है।

2 एफएमडी एक ज़ूनोटिक बीमारी नहीं है और पशु से मनुष्य को प्रेषित नहीं हो सकती।

3 ब्लू टंग (बी.टी.) भेड़ को प्रभावित करने वाला गैर संक्रामक, वेक्टर जनित, एक वायरल रोग है। यह वायरस एक आरबोवायरस है जो स्वाभाविक रूप से घरेलू पशुओं को संक्रमित करता है और कुलिकोआइड्स (काटने वाले घुन) की कई प्रजातियों के द्वारा फैलता है। इस रोग का किटाणु नमी वाले विभिन्न स्थानो पर पनपता है जैसे कि नमी, दलदल और मल व पोधों में।

4 पस्टे डी पटीट्स रुमिनेन्टस (पी.पी.आर.) – यह बकरी प्लेग के रुप मे जाना जाता है जो एक ऐसे वायरस द्वारा फैलया जाता है जो रीन्डरपेस्ट वायरस, केनाइन डिस्टम्पर वायरस, और मानव खसरा वायरस से बहुत नज़दीकी से मिलता जुलता है। उन स्थानों को छोड़ कर जहाँ यह बिमारी आम फैलती है, या जब हल्की बिमारी होती है तो रुगणता 100 प्रतिशत और मृत्यु दर 20 से 90 प्रतिशत के बीच मे होना आम बात है।

5 इस सक्रीय शोध अध्ययन मे 1,028 भेड़ों का चयन नल्लमपलायम गाँव-समूह के 40 किसानो से तथा 1,357 भेड़ों का चयन वेम्बूर गाँव-समूह के 32 किसानो से लिया गया।

6 जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाषक दवाई, जिसे पूछी मरुनथू भी कहा जाता है, निरगुंडी के पत्ते, धृतकुमारी, संकुप्पी, आक और नीम के बीज से बनाया जाता है। हर सामग्री का एक किलो मिला कर पीसा जाता है तथा उसको तरल काढ़े के रुप में बना लिया जाता है। इस काढ़े को 3 महीने तक भंडारित किया जा सकता है। इस काढ़े को व्यस्क भेड़ों को 30 एम.एल. और बच्चे को 10 एम.एल. पिलाया जाता है। जड़ी-बूटी निर्मित दवाई व मसाला बोलस के लिए सामग्री और निर्माण विधि के बारे मे जानकारी श्री चेलामुथ्थु और स्वर्गीय श्री मुक्कन ने दी थी।

7 मसाला बोलस को एक बड़े आंवले के आकार मे निम्नलिखत सामग्री से बनाया जाता है -
बेरकातेली या कानताकारी (सोलानुम सुराटेन्स) छोटा हल्कुसा या थुमबाई (लूकस एसपेरा), कुप्पाईमेनी (अकालिफा इनडिका), वीली के पत्ते (काडाबा फारिनोसा), पेरूथुमबाई (लूकस मारटिनीसेनसिस), उसिलाई (एलबिज़िआ अमारा), तुलसी (ओसिमम टेनुइफलोरम), अवारमपू (कैसिया ओरिक्यूलाटा), मूँगिल (बमबूसा अरुनडिनासिया), पुलिआमपिरानडाय (विटिस सेटोसा), थुथी (अबुटिलोन इनडिकम), मुसुमुसुकाई (मुकिआ मादेरासपाटाना), कोलुनची (टेफरोसिआ परपरिआ), मानजानाथी (मारिनडा टिंकटोरिआ), वेलिपारुथी (पेरगुलेरिआ डाइमिआ), नीलावेमबू (एनड्रोग्राफिस पानीक्यूलाटा), विराली (डोडोनेइआ विसकोसा), और माविलंगम (क्राटेवा अदनसोनी)।

ऊपर लिखित प्रत्येक सामग्री का 50 ग्राम एकत्र कर के छाया मे सूखा कर, अच्छी तरह से पीस कर इस्तेमाल किया जाता है।

इसके अलावा, निम्नलिखत सामग्री का 10 ग्राम एकत्र कर के इन्हे कूट के एक पाउडर बनाया जाता है -
पिप्पली (पाईपर लौंगम), जीरां (किमिनम सायमिनम), सौंफ (फोएनिक्यूलम वलगैर), हींग (फेरूला ऐसफटीडा), वालमिलागू (पाईपर कुबेबा), सौंठ (ज़िगीबेर ओफीसिनेल – सूखा), काली मिर्च (पाईपर निगरम), मिर्ची (कैपसिकम एनम), खसखस (पापावेर सोमनीफेरम), लौंग (सिनामोमम ज़ेलानिकम), मेथी (ट्रिगोनेला फोइनमग्राइकम), अजवैन (ट्रैकिस्परमम अम्मी), धनिया के बीज (कोरिएनड्रम साटिवम)।

इसके अतिरिक्त केले के फूलों का एक गुच्छा, 100 ग्राम प्रत्येक सामग्री – कालिअथी के फल (फाईकस टिंकटोरिआ), अमरूद के पेड़ की छाल, सोत्रू कट्रलाई (एलो वेरा), लहसुन और कोल्लनकोवाईकिलांगू (कोरोलाकोरपस एपीगाइअस) – पिरानडाई का 500 ग्राम (सिसस क्वाडएंग्यूलैरिस), 250 ग्राम प्याज़ और एक नारियल भी इस्तेमाल किया जाता है।

इन सब सामग्रियों को अच्छी तरह पीस कर और मिला कर लगभग 60-100 मसाला बोलस के गोले बनाये जाते हैं। इनके ऊपर पिसी हल्दी छिड़की जाती है। इन मसाला बोलस की आयू तीन दिनों तक ही सीमित है।

8 श्री चेलामुथ्थु ने वर्ष 2000 में फसल कीट के नियंत्रण के लिए हर्बल कीट-नाशक निर्मित किया जिसके लिए उन्हे सृष्टि सम्मान पुरस्कार प्राप्त हुआ। फिर वर्ष 2002 में, उन्हे पुनः राष्ट्रीय इनोवेशन फाउंडेशन (एनआईएफ, अहमदाबाद) पुरस्कार से, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम द्वारा, सम्मानित किया गया।

9 जड़ी-बूटी निर्मित कृमि-नाशक दवाई का वर्तमान (मई 2014) दर 100 रुपये प्रति लीटर है।


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Promotion of Ethno-Veterinary Practices for Small Ruminants - An Action Research Study by SEVA, Tamil Nadu

SEVA (Sustainable Agriculture and Environmental Voluntary Action) is an NGO involved in documenting and disseminating indigenous knowledge and grassroot innovations in Tamil Nadu, as also the conservation of local livestock breeds. For the last 20 years, SEVA has been documenting ethno-veterinary practices for livestock rearing and has trained over 4,000 farmers, some of whom practice as livestock healers in various parts of Tamil Nadu.

In 2008, SEVA initiated a study on the comparative efficacy of herbal and chemical de-wormers on sheep flocks. Shepherd communities from the Nallampalayam and Vembur clusters in the Thiruppur and Thoothukudi districts respectively, were selected by SEVA to be a part of this research study.  The Nellampalayam and Vembur clusters are home to the Mecheri and Vembur breeds of sheep respectively. Farmers in the area have marginal land-holdings and maintain a flock of 30-40 sheep per family. For many households, sheep rearing is the only source of livelihood. The average annual income of shepherds in the area is Rs 30,000 from a herd of 20 sheep.

Sheep in both clusters are reared under an open grazing system. However, in Nallampalayam most farmers also maintain korangadu1  pasture land for grazing their sheep. Shepherds in the area have limited access to veterinary health care services. According to data collected by SEVA, the average annual mortality of adult sheep is over 15%. The major diseases accounting for this high mortality are outbreaks of FMD2, Blue Tongue3 and PPR4

The study initiated by SEVA was spread over a period of six months from April to September (summer to pre-monsoon season) 2008 and covered 2,385 sheep belonging to 72 pastoralists in 8 villages in the Thiruppur and Thoothukudi districts5. These sheep were reared either under an open grazing system and / or on private pasture lands (for example korangadu in Nallampalayam). 

Three trial groups were formed as detailed below:  

T1 – control group (not administered either the chemical de-wormer or the herbal de-wormer)

T2 – administered the conventional de-worming drug Fenbendazole 

T3 – administered  the herbal de-wormer6  and masala bolus7

While Fenbendazole was administered to sheep in the T2 group, once in three months, as per a medically prescribed schedule and dosage of 10 ml per sheep, the quantity of the herbal de-wormer administered to the sheep was 30 ml for adult sheep and 10 ml for lambs, once every two months i.e. thrice during the study period. Masala bolus was also administered, as an immunity booster, every alternate month to each sheep in the T3 group. The masala bolus is the size of a large amla (Indian gooseberry) weighing approximately 20 gm. The masala bolus were given twice daily for three days every alternate month during the study period. 

Faecal samples of all three groups were collected on the 0, 3rd, 7th, 10th, and 14th day of administration of the two de-wormers and sent to the Madras Veterinary College, Chennai, for microscopic assessment of EPG (Eggs per gram) count. Similar data was collected over a period of six months. It was observed that during the data collection period the sheep in both the T2 and T3 groups were free from symptoms of any infectious diseases.

As per the EPG (egg per gram) count reported by the Madras Veterinary College, reduction in mean EPG was evident in both the treated groups over the untreated group (T1 – Control group). The percentage reduction of the faecal egg count on the 14th day of treatment was 78.87 and 73.65 in the Fenbendazole and herbal de-wormer administered group respectively. The overall reduction percentage in EPG on the 14th day after treatment was 94.18 and 88.64 for Fenbendazole and the herbal de-wormer administered groups respectively. The results demonstrated that the effectiveness of the herbal de-wormer was comparable to that of the chemical de-wormer Fenbandazole.

Considering the zero side-effects of the herbal de-wormer and its easy availability in remote rural areas, the herbal de-wormer had a higher replication potential as an ethno veterinary practice. The general feedback collected by SEVA from farmers who participated in the research trial, and whose sheep were administered both the herbal de-wormer and the masala bolus, confirmed that flocks were more active and agile than before. Additionally, farmers observed a positive change in the grazing behavior of sheep in terms of an increased appetite. 

Some shepherds however expressed their difficulty in preparing and administering the masala bolus. Following the positive results of the field experiment, while some shepherds have taken up the preparation and use of both the herbal de-wormer and the masala bolus on a regular basis, a few local healers in the villages use some of the ingredients of the masala bolus to make their own preparations to cure ailing livestock in the vicinity. The medicinal plants used to prepare the herbal de-wormer and the masala bolus, are found in abundance in waste lands and agricultural fields.  A few agricultural farms maintained by NGOs like Pitchandikulam Forests are also a good source of these medicinal plants. Further, since only leaves and branches are required to prepare the herbal de-wormer and the masala bolus, these medicinal plants are never uprooted.

SEVA continues to hold medical camps in various villages across Tamil Nadu to train people on preparing and administering the herbal de-wormer and the masala bolus. It has been observed that villagers readily bring their cattle and other livestock to these camps and help administer the herbal medicines. Usually a central place easily accessible by two-three villages is selected for the camp so that a maximum number of people and livestock can benefit. 

SEVA has also supported a landless labourer, Mr Chellamuthufrom Karukkampalayam village in district Erode, to set up a small processing unit to prepare the herbal de-wormer. The de-wormer is sold at Rs 809 per litre. While some livestock rearers come to purchase the de-wormer from the processing unit itself, a number of others place an order over telephone and Mr Chellamuthu delivers the required quantity. 

The cost of the herbal de-wormer is comparable to that of the chemical de-wormer Fenbendazole (refer to Table 1). The herbal de-wormer can also be prepared by livestock rearers on their own as the ingredients are easily available around homestead areas unlike the chemical de-wormer which has to be purchased from a chemist. 

Table1

Table1

This action based research study conducted by SEVA confirms that a participatory process of verification of local practices in combination with scientific assessment techniques has a higher potential for adoption by rural farmers.

Based on documentation undertaken by Sanjeev Kumar, The Goat Trust, for SA PPLPP and inputs provided by Mr. P. Vivekanandan Executive Director, SEVA, Madurai and Dr. N. Kumaravelu, Associate Professor, Tamil Nadu Veterinary and Animal Sciences University, Chennai.

Web-link: http://sevango.in

Photo-credit: SA PPLPP Coordination Team and Mr P. Vivekanandan, SEVA.

Suggested citation: SA PPLPP (2012), “Promotion of ethno-veterinary practices for small ruminants - An Action Research Study by SEVA, Tamil Nadu”. Case Study, New Delhi, India

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Korangadu are privately owned pasturelands in the semi-arid tracts of Tamil Nadu. These comprise a combination of cenchrus grass, horse gram, Phaseolus trilobus (wild gram) and Acacia leucophloea (white bark acacia) trees, surrounded with live fencing of Commiphora berryii. 

2 Foot-and-mouth disease (FMD) is a highly contagious viral disease affecting both large and small ruminants, and is transmitted by the picorna virus, the prototypic member of the genus aphthovirus. The virus can survive in contaminated fodder and in the environment for up to a month, depending on temperature and pH conditions. FMD is not a zoonotic disease and cannot be transmitted to humans.

3 Blue-tongue is a non-contagious vector borne viral disease affecting sheep. The virus is an arbovirus that naturally infects domestic animals and is transmitted by several species of Culicoides (biting midges). The insect vectors of the blue-tongue virus breed in moist conditions in a variety of habitats, particularly damp, muddy areas and in faecal and plant matter.

4 Peste des Petits Ruminants (PPR), also known as goat plague, is caused by a virus closely related to the rinderpest virus, canine distemper virus, and the human measles virus. Morbidity up to 100 % and mortality rates between 20 and 90 % are common, except in endemic areas or when mild disease occurs.

5 In the Nallampalayam cluster 1,028 sheep belonging to 40 farmers and in the Vembur cluster 1,357 sheep belonging to 32 farmers were selected for the action based study.

6 The herbal de-wormer, also called Poochi marunthu, is prepared with leaves of Vitex negundo (five leaved chaste tree), aloe vera, Clerodendrum inerme (wild jasmine), Calotropis and the seeds of Azadirachta Indica (Neem). One kg of each of these ingredients is ground and made into a liquid extract which can be stored up to 3 months. This is administered orally to adult sheep (30 ml) and lamb (10 ml). The ingredients and method of preparation for both the herbal de-wormer and the masala bolus was shared by two local healers Mr Chellamuthu and the late Mr Mookkan respectively.

7 The masala bolus is made in the size of a big amla (Indian Gooseberry) fruit from the following ingredients:

Kandankathri (Solanum surattense), Thumbai (Leucas aspera), Kuppaimeni (Acalypha indica), Veeli leaves (Cadaba farinosa), Peruthumbai (Leucas martinicensis), Usilai (Albizia amara), Tulsi  (Ocimum tenuiflorum), Avarampoo (Cassia auriculata), Moongil (Bambusa arundinacia), Puliampirandai (Vitis setosa), Thuthi (Abutilon indicum), Musumusukkai (Mukia maderaspatana), Kolunchi (Tephrosia purpurea), Manjanathi (Marinda tinctoria), Veliparuthi (Pergularia daemia), Nilavembu (Andrographis paniculata), Virali (Dodonaea viscosa)and Mavilangam (Crateva adansonii). 50 grams each of the above ingredients is collected, shade dried, pounded well and used. 

In addition, 10 grams each of the following ingredients are collected and made into a powder - Thippili (Piper longum), Seeragam (Cuminum cyminum), Sombu (Foeniculum vulgare), Perungayam (Ferula asafoetida), Valmilagu (Piper cubeba), Sukku (Zingiber officinale – dried), Pepper (Piper nigrum), Chillis (capsicum annuum), Kasakasa (Papaver somniferum), Lavangam (Cinnamomum zeylanicum), Fenugreek (Trigonella foenumgraecum), Omam (Trachyspermum ammi), Seeds of coriander (Coriandrum sativum

In addition, Banana (Musa paradisica) one inflorescence, and 100 grams each of unripe Kaleathi fruits (Ficus tinctoria), Guava bark (Psidium guajava), Sotru katralai (Aloe vera), Garlic (Allium sativum) and Kollankovaikilangu (Corollacarpus epigaeus), 500 grams of Pirandai (Cissus quadrangularis), 250 grams of Onion and one Coconut, are also used.

The above ingredients are ground, mixed well and made into boluses and dusted with turmeric powder. Almost 60-100 boluses can be made using the above listed quantity of ingredients. The shelf life of the masala bolus is three days.

8 Mr Chellamuthu received the SRISTI Samman award in year 2000 for the herbal formulation for control of crop pests. In 2002, he also received the National Innovation Foundation (NIF, Ahmedabad ) award conferred to him by Dr APJ Abdul Kalam, the then president of India.

9 The current rate (in May 2014) of the Herbal De-wormer is Rs 100 per litre.


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