छोटे पशुओं के उपचार के लिए औषधीय पौधों द्वारा पशु चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन - बायफ डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा एक शोध अध्ययन
Oct 08, 2012
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बायफ का उद्देशय है ग्रामीण परिवारों, विशेषकर वंचित और संसाधन गरीब परिवारों के लिये लाभकारी स्वरोज़गार के अवसरों का सृजन करना, तथा सुनिश्चित करना कि उनकी आजीविका मे स्थिरता हो और उनके जीवन की गुणवत्ता मे सुधार हो। इन उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा मे बायफ ने सहभागी समुदाय से निरंन्तर बातचीत जारी रखी ताकि उनके द्वारा सामना की गई बाधाओं को पहचानने मे मदद कर सकें तथा सब मिल कर स्थानीय उपलब्ध संसाधनो के आधार पर संभव समाधान पर विचार कर सकें। कौशल मे बढ़ोतरी तथा प्रौद्योगिकी और ज्ञान संसाधन की पहुँच को सरल बनाना, अन्य प्रमुख कार्यान्वन रणनीतियाँ है। बायफ 16 राज्यों के 60,000 गाँवों में काम करती है तथा 45 लाख किसानों तक इसकी पहुँच है। डेयरी पशुपालन को बढ़ावा, जल संसाधन विकास और स्थायी कृषि इनकी प्रमुख गतिविधियों मे शामिल है। पर्यावरणीय स्थिरता और महिलाओं के सशक्तिकरण को सुनिश्चित करना बायफ के सभी कार्यक्रमों की अभिन्न योजना है (संदर्भ www.baif.org.in)। कर्नाटक के धारवाड़ ज़िले मे बायफ के कार्यक्रम क्षेत्र मे बकरी पालको ने बरसात के मौसम मे बकरी के बच्चों की उच्च मृत्यु-दर को एक प्रमुख बाधा बताया। ज़िले के तीन गाँवो (निगाडी, देवरहुबली ओर बनकाईकट्टी) के बकरी पालको से विचार विमर्श के बाद पाया गया की गर्भवती बकरी व उनके बच्चों मे परजीवी संक्रमण उच्च मृत्यु-दर का कारण थी। कुरबा समुदाय के सदस्य जो क्षेत्र के एक पारम्परिक चरवाहा समुदाय है वो स्थानीय उपलब्ध जड़ी-बूटी का प्रयोग अपने पशुधन के कृमि उन्मूलन के लिए नियमित रुप से किया करते थे।
बकरी पालकों को साथ मिलाकर बायफ की शोधकर्ता दल ने एक जाँच की शुरुआत की जिसके द्वारा जड़ी-बूटी व व्यवसायिक कृमि-नाशक दवाई फेनबेंडाज़ोल के प्रभावों का तुल्नात्मक अध्ययन किया जा सके। जड़ी-बूटी म्यूक्यूना प्रूरिअन्स को आमतौर पर वैलवट बीन या कौंच या कोविच कहते है और इसे कन्नड़ मे नसगुनी कहते हैं। इस पौधे कि फलियों से प्राप्त बाल इस्तेमाल किए जाते है। म्यूक्यूना प्रूरिअन्स एक उष्ण कटिबंधिय फली है जो आमतौर पर सड़क के किनारे जंगली पौधे के रुप मे, वन क्षेत्र और नीजी ज़मीन पर पाई जाती है। इसकी फलियाँ गुच्छे मे लगती है और 4-5 गुच्छे 15-20 बकरी के एक छोटे झुंड के लिए काफी होते हैं।
प्रस्तावित जाँच पर बायफ के स्टाफ और इस क्षेत्र के बकरी पालकों के बीच काफी वार्तालाप हुआ इस निषकर्ष पर पहुँचने के लिए कि कितनी दवाई की मात्रा पशुओं को पिलानी है1।
ग्रामीण लोगों के साथ मिलकर यह फैसला हुआ कि परीक्षण लगातार दो सालों, 2000 और 2001, तक करना है। चूंकि बकरी के बच्चों मे उच्च मृत्यु-दर ज्यादा कृमि होने के कारण थी, इसलिए यह फैसला लिया गया कि कृमि-नाशक दवाई गर्भाव्सथा के अंतिम दिनों के दौरान और बच्चा होने की तिथी को पिलाई जाए।
सन् 2000 मे पहले परीक्षण के दौरान, जिसमे केवल 21 किसानों ने भाग लिया, केवल रसायनिक कृमि-नाशक दवा फेनबेंडाज़ोल की खुराक 34 गर्भवती बकरियों को बच्चा पैदा होने से 15-30 दिन पहले पिलाई गई, जबकी अतिरिक्त 34 बकरियों का नियंत्रण समुह बनाया गया जिन्हे कोई भी उपचार नही दिया गया।
बकरी पालको ने फेनबेंडाज़ोल की लागत का आधा हिस्सा सहयोग के रुप मे दिया जबकी बची हुई आधी लागत को बायफ ने दिया। इन परीक्षणों ने दो महीने परखने के बाद दर्शाया कि नियंत्रण समुह (जिसे कोई भी उपचार नही दिया गया था) में बच्चों की मृत्यू-दर 18 प्रतिशत तक थी जबकी उन बच्चों की मृत्यू-दर घट कर 8 प्रतिशत हो गई जिन्की माँओं को रसायनिक कृमि-नाशक दवा पिलाई गई थी। जिन बकरियों को दवा पिलाई गई, उनके बच्चों का विकास दर ज़्यादा अच्छा था।
सन् 2001 मे दुसरे परीक्षण मे भाग लेने वाले किसानो की संख्या 18 थी, जिनके पुरे झुण्ड को तीन समुहों मे विभाजित किया गया जिनके प्रत्येक समुह मे 26 बकरियाँ थीं। इनमे से दो समुहो को क्रमशः फेनबेंडाज़ोल तथा म्यूक्यूना प्रूरिअन्स (हिन्दी नाम कौंच) दवा पिलाई गई। तीसरा समुह जो नियंत्रण समुह था, उसको कोई भी उपचार नही दिया गया। पहले परीक्षण के विपरित, बच्चों के मृत्यु-दर को चार महीनों तक परखा तथा रिकॉर्ड किया गया। इसके अलावा 21 गर्भवती बकरीयों की मीगने उपचार से पहले व उपचार से 7 दिनों के बाद परजीवी जांच के लिये इकट्ठी की गई। जिन बकरीयों का उपचार किया गया था उनकी मींगनो मे अण्डो की संख्या बड़ी मात्रा मे कम पाई गई, जबकि परजीवी की संख्या नियंत्रण समुह मे बढ़ी हुई मात्रा मे मिली।
दुसरे परीक्षण के आंकड़ों से पता चलता है की जड़ी-बूटी द्वारा निर्मित दवा कृमि-नाशक के रुप मे उतनी ही प्रभावशाली हे जितनी की इसकी रसायनिक विकल्प । उदाहरण के लिए बच्चों के जन्म का वजन और 4 सप्ताह में वजन मे वृद्धि, नियंत्रन समुह के मुकाबले उपचार समुह में ज़्यादा था। बच्चे के जन्म से लेकर 4 महीने की उम्र तक मृत्यु-दर नियंत्रण समुह मे 40 प्रतिशत, तथा 16 और 20 प्रतिशत क्रमशः म्यूक्यूना प्रूरिअन्स और फेनबेंडाज़ोल समुहों मे। इसके अलावा परीक्षण ने दर्शाया कि नियंत्रण समुह के मुकाबले उपचार की गई बकरीयों मे बच्चे पैदा करने का अन्तराल कम था ।
अध्ययन के दौरान और बाद में बकरी पालकों से की गई बातचीत से पता चला कि बकरी पालक रसायनिक फेनबेंडाज़ोल उपचार के मुकाबले जड़ी-बूटी वाला उपचार ज़्यादा पसंद करते हैं। इसके मुख्य कारण हैं म्यूक्यूना प्रूरिअन्स के फलियों का आसपास के इलाके मे आसान उपलब्धता, लागत मे किफायत क्योंकि फलियां आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, फेनबेंडाज़ोल जो खरीदना पड़ता है, और परीक्षणो के परिणाम जो दर्शातें है की म्यूक्यूना प्रूरिअन्स उतना ही प्रभावशाली है जितना की रसायनिक कृमि-नाशक।
बकरी पालकों के साथ गहन विचार विमर्श में किया गया यह सहयोगी अनुसंधान अध्ययन, एक स्थानीय रूप से उपलब्ध जड़ी-बूटी के प्रभावी इस्तेमाल पर पशु-पालकों को सुग्राही बनाने में कारगर साबित हुआ। परीक्षण में भाग लेने वाले बकरी पालकों के अलावा बड़ी संख्या मे पशु-पालकों ने इस तकनीक को अपनाया। जिन क्षेत्रों में म्यूक्यूना प्रूरिअन्स आसानी से उपलब्ध नहीं था, बकरी पालकों ने कृमि-नाशन के लिए फेनबेंडाज़ोल का उपचार किया। यह इस बात का संकेत देता है कि किसान अपने दम पर कृमि-नाशन शुरू करने के लिए तैयार हैं।
यह लेख सी. कोनरॉय (प्राकृतिक संसाधन संस्थान, ग्रीनविच विश्वविद्यालय), वाई. ठाकुर (बायफ ग्रामीण विकास संस्थान (कर्नाटक)) और एम. वाधेर (बायफ/रीदमा) द्वारा शोध अध्ययन पर आधारित है जिसका शीर्षक है “टेक्नोलॉजी मे भागीदारी विकास की प्रभावकारिता: भारत में गरीब बकरी पालकों के साथ अनुभव”।
फोटो क्रेडिट - http://commons.wikimedia.org
प्रस्तावित संदर्भ - एस.ए.पी.पी.एल.पी.पी. (2012) – “छोटे पशुओं के उपचार के लिए औषधीय पौधों द्वारा पशु चिकित्सा पद्धति को प्रोत्साहन बायफ डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा एक शोध अध्ययन”
हिंदी अनुवाद – एन.के. शर्मा और शीला कोयाना (एस.ए.पी.पी.एल.पी.पी. को-औरडीनेशन टीम)
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संदर्भ
1 म्यूक्यूना प्रूरिअन्स की खुराक के बारे मे बकरी पालको के साथ जो अंतिम रुप दिया गया वह था 20 एम.जी. प्रति कि.ग्रा. शरीर के वजन के अनुसार। यह गुड़ और पानी के गर्म घोल मे मिलाया जाता है और गर्भवती बकरी को पिलाया जाता है। बायफ द्वारा कुरबा समुदाय के सदस्यों को आमंत्रित किया गया ताकि वे बकरी पालकों को शिक्षित कर सकें कि कैसे म्यूक्यूना प्रूरिअन्स की फली मे से बाल निकाले जाते हैं।
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Promotion of Ethno-Veterinary Practices for Small Ruminants - An Action Research Study by BAIF Development Research Foundation (Dharwad, Karnataka)
BAIF’s mission is the creation of opportunities for gainful self-employment for rural families, particularly disadvantaged and resource poor households, ensuring sustainable livelihoods and an improved quality of life. Towards achieving these objectives, BAIF undertakes sustained dialogue with participating communities to help identify constraints faced and jointly discuss possible solutions based on locally available resources. Skill up-gradation and facilitating access to appropriate technology and knowledge resources are other key implementation strategies.
BAIF works across 60,000 villages in 16 states of the country reaching out to over 4.5 million farmers. Major activities include the promotion of dairy husbandry, water resource development and sustainable agriculture. Ensuring environmental sustainability and women’s empowerment are cross-cutting strategies across all its programmes (reference www.baif.org.in).
In BAIF’s programme area in the Dharwad district of Karnataka, high mortality among goat kids in the rainy season was reported as a major constraint by goat rearers. Following discussions with goat rearers in three villages’ of the district (Nigadi, Devarhuballi and Benkaiikatti) the high mortality was attributed to nematode infestations in both pregnant does and their kids. Members of the Kuruba community, a traditional pastoral community in the area, were reported to use a locally available herb for regular de-worming of their livestock. In collaboration with goat rearers, BAIF’s research team conducted trials to study the comparative efficacy of this herb with a commercial de-wormer Fenbenzadole. The herb, Mucuna Pruriens commonly known as velvet bean or cowitch, is called Nasugunni in Kannada. The trichomes (hair) from the pods of this plant are used. Mucuna Pruriens is a tropical legume commonly found growing wild along roads, in forest areas and on private lands. The pods occur in bunches and four to five bunches suffice to meet the requirements of a small herd of 15-20 goats.
The proposed trials were extensively discussed between BAIF staff and goat rearers in the area to jointly arrive at the quantity of the dose to be administered1.
Together with the villagers it was decided to conduct trials consecutively in two years, 2000 and 2001. Since mortality rates are higher for kids of does that have a heavy worm burden, it was decided to administer the de-wormers to does in late pregnancy and on the day of kidding.
During the first trial in 2000, where 21 farmers participated, only the chemical de-wormer Fenbendazole was administered to 34 does, 15-30 days before kidding, while an additional 34 does formed a control group and were not administered any treatment. Goat keepers contributed half the cost of the Fenbendazole, with the remaining cost being borne by BAIF. These trials revealed that the mortality of kids, observed over a period of two months, remained as high as 18 percent in the control (un-treated) group and reduced to just 8 percent in case of kids born to does who had been administered the chemical de-wormer. The growth rate of kids born to these does was also observed to be higher.
In the second trial conducted in 2001 the number of participating farmers was 18, the combined flock of whom was divided into three groups of 26 does each. Two of these groups were administered Fenbendazole and Mucuna Puriens respectively while the third group formed the control group and was not given any treatment. Unlike the first trial the mortality of kids was observed and recorded over a period of four months. Additionally, goat droppings from 21 pregnant does were collected, prior to and seven days after the treatment, to test the parasitic burden. The parasitical faecal egg count, for the two groups who received the treatment, had reduced significantly on the seventh day of de-worming while the parasitic burden of the control group had increased.
Table 1: Parasite egg count (No./gm) in the faeces of research trial does2
The data of the second trial revealed that the herbal anti-helminthic was as effective a de-wormer as its chemical substitute. For example, the birth weight and the weight gain from birth to four weeks of age were higher in case of the treated groups as compared to the control group. Kid mortality from birth to 4 month of age was 40 percent in case of the control group and 16 and 20 percent in case of the groups administered Mucuna Pruriens and Fenbendazole respectively. Additionally the trials revealed that the does in the treatment groups had a shorter kidding interval as compared to the control group.
The study and subsequent discussions with goat rearers revealed that goat keepers preferred the herbal treatment over the chemical treatment using Fenbendazole primarily on account of easy availability of the Mucuna Pruriens pods in the surrounding areas; cost effectiveness since the pods could be easily collected as compared to Fenbendazole which needed to be purchased, and the results of the trials that demonstrated that Mucuna Pruriens was as effective as the chemical de-wormer.
Being a collaborative research study done in close consultation with goat rearers, it proved effective in sensitizing livestock rearers on the effective use of a locally available herb. A large number of goat rearers, in addition to those who participated in the trial adopted the technology. In areas where Mucuna Pruriens was not easily available, goat rearers took to administering Fenbendazole, which is indicative of farmers’ preparedness to undertake de-worming on their own.
Based on the research study ‘The Efficacy of Participatory Development of Technologies: Experiences with Resource-poor Goat Keepers in India’ by C. Conroy, Y. Thakur and M. Vadher (Natural Resources Institute, University of Greenwich, BAIF Institute for Rural Development (Karnataka) and BAIF/ RRIDMA)
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